रविवार, 17 मार्च 2013

प्रलय - 4


आपदा प्रबन्धन मन्त्री का बिशनपुर गांव का दौरा नहीं हो पाया क्योंकि उनको हैलीकॉप्टर उपलब्ध नहीं कराया गया। बिशनपुर गांव वाले बड़े निराश  थे पर मन्त्रीजी के समर्थक बहुत नाराज़ थे। एक कैबिनेट स्तर के मन्त्री को हैलीकॉप्टर उपलब्ध न कराना क्या उनका अपमान नहीं था? पीडि़तों को अब मुख्यमन्त्री के दौरे का इन्तज़ार  था। बिशनपुर गांव तक गाड़ी जाने के लिए कोई रोड नहीं थी पर अच्छी बात ये थी कि मुख्यमन्त्रीजी को टूटी सड़कों और लैण्डस्लाइड्स को हैलीकॉप्टर पर आसीन होकर सिर्फ़  आसमान से महसूस करना था। वैसे भी शैलनगर कैन्टुनमन्ट के हैलीपैड से बिशनपुर गांव की दूरी महज़ पाँच  किलोमीटर ही थी। इतना पैदल तो श्रीमान चल ही सकते थे। सबको उम्मीद थी कि मुख्यमन्त्रीजी बिशनपुर गांव को सहायता राशि का एक बड़ा सा पिटारा देकर ही जाएंगे। सवेरे से कई आला अफ़सर गांव के चक्कर लगा चुके थे। सरकारी पैसे से गांव वालों को चाय-नानाश्ता  कराया जा रहा था। मृतकों और घायलों के लिए मुआवज़े का ऐलान भी किया जा रहा था। पटवारीजी के कहने पर ग्राम-प्रधानजी ने गांव में दो-चार साफ़-सुथरे बच्चों को तलाश  लिया  था। मुख्यमन्त्रीजी कभी भी किसी बच्चे को अपनी गोद में उठा सकते थे। ऐसे हादसे के वक्त ज़रूरी तो नहीं था पर जनसेवकों के स्वागतार्थ फूल-मालाओं का इन्तज़ाम  भी कर लिया गया था।

बिशनपुर गांव में नेताओं का जमावड़ा लग चुका था। पीडि़तों को बिन मांगे, कम्बल बांटे जा रहे थे, उन्हें सहायता--शिविरों  में शिफ़्ट  किया जा रहा था। मलबे से घायलों और शवों  को निकालने का काम अब खत्म हो चुका था। मृतकों का अन्तिम संस्कार किया जा चुका था। बाहर पड़े हुए मरे हुए जानवरों को तो गाड़ दिया गया था पर मलबे में दबे हुए मुर्दा जानवरों की दुर्गन्ध सबको परेशान  कर रही थी। कई ऑफिसर्स  दुर्गन्ध छोड़ने वाली जगहों पर मलबा साफ़ कराने के लिए जवानों को डायरेक्शन  दे रहे थे। लाख कोशिशों  के बावजूद दुर्गन्ध का प्रकोप कम नहीं हो पा रहा था। पता नहीं कितने जानवर इस नई कब्रगाह में दफ़न हो गए थे। गैमक्सीन पाउडर, फि़नाइल, धूप-अगरबत्ती का असर भी कुछ खास नहीं पड़ रहा था। ऐसे हालात में मुख्यमन्त्रीजी गांव का दौरा कैसे कर सकते थे? अफ़सरों ने यह तय किया कि मुख्यमन्त्रीजी को गांव के सिर्फ़  उस हिस्से का दौरा कराया जाए जहां पर बदबू का प्रकोप कम है।

भानू पंडितजी  मुख्यमन्त्रीजी के साथ मृतकों की आत्मा की शांति  के लिए पूजा-अर्चना करने के लिए अपना पूजा का थाल सजा चुके थे। नेताओं और आला अफ़सरों पर अपना अच्छा इम्प्रैशन  छोड़ने का यह सुनहरा मौका था। उनके घर तक अगर पक्की सड़क बन जाती तो उनके मकान की कीमत दुगनी हो जाती। पूजा के बाद भानू पपंडितजी मुख्यमन्त्रीजी के सामने पूरे गांव की तरफ़ से सड़क बनाए जाने की मांग रखने वाले थे।
जिलाधीश महोदय ने यह घोषणा  कर दी थी कि जिन पेड़ों  से मकानों को खतरा है, उन्हें काट दिया जाए। कुछ खतरनाक हो रहे टूटे और अधटूटे पेड़ों  का काटा जाना तो ज़रूरी था पर इस घोषणा  का फ़यादा उठाकर ठाकुर जमनसिंह और उनके साथियों ने सैकड़ों  पेड़ों  पर आरे चलवा दिए। अब इन लोगों के लिए इमारती लकड़ी और ईंधन की कोई कमी नहीं थी। कुछ दुकानदारों ने इस नैचुरल कैलेमिटी को अपनी आमदनी का ज़रिया बना लिया। सामान की किल्लत के अन्देसे  से आटा, दाल, चावल, चीनी, नमक, दूध, मोमबत्ती, माचिस, कैरोसिन और सब्जि़यों के दाम आसमान छूने लगे थे। कुछ लोगों ने आने वाले भूकम्प की खबर फैला दी। लोगबागों ने अपने घरों को छोड़ सारी रात खुले आसमान के नीचे बिताई। भूकम्प तो नहीं आया पर उसके डर से हुए खाली घरों में रात भर चोरों और उठाईगीरों ने अपने हाथ साफ़ कर लिए।

बालनिकुन्ज संस्था की संचालिका श्रीमती सोनालिका गांव के दो ताज़ा अनाथ हुए अबोध भाई-बहन पर अपना प्यार उड़ेल रही थीं। उनकी संस्था इन बच्चों  को अपने यहां रखने वाली थी। बाद में इन्हें बच्चा गोद लेने के इच्छुक व्यक्तियों के सुपुर्द कर दिया जाना था। सोनालिकाजी के पास मुम्बई के एक अरबपति सेठ की डिमाण्ड पड़ी हुई थी। गोद लेने के लिए उन्हें कोई सुन्दर सा अनाथ बालक चाहिए था जो कि अपने माता-पिता की लेजिटिमेट सन्तान हो। इसके लिए सेठजी सोनालिकाजी की संस्था को पचास लाख का डोनेशन  देने को तैयार थे। एक स्विस दम्पत्ति को एक सुन्दर सी बेटी चाहिए थी और वो इसके लिए विदेशी  मुद्रा में एक मोटी रकम देने को तैयार था। ऐसी आपदाओं में सोनालिकाजी को एडॉप्शन  का एकाद फ़यादेमन्द सौदा करने का मौका मिल ही जाता था। इन बच्चों को पाकर सोनालिकाजी की लॉटरी खुल गई थी।      
रिटायर्ड मास्साब पंडित  दीनानाथ पाण्डे जब चालीस रूपये किलो आलू और साठ रूपये किलो टमाटर खरीद कर ला रहे थे तब उन्हें भूकम्प की अफ़वाह का फ़यादा उठाने वाले उठाईगीरों की कारस्तानी और सोनालिकाजी के सौदेबाज़ी की खबर मिली। मास्साब अपना सर पकड़ कर सोच रहे थे -
'एनवाइरॉन्मेन्टलिस्ट्स परेशान  हैं कि गिद्धों  की तादाद घटती जा रही है पर अब उन्हें चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। ज़िन्दा  इंसानों को बेचने वाले, उनका खून चूसने वाले और मांस नोंच-नोंच कर खाने वाले इंसानी गिद्ध उनकी जगह लेते जा रहे हैं।'

बिशनपुर गांव में बिन्नो के परिवार सहित कुछ परिवार ऐसे थे जिनका कोई भी सदस्य जीवित नहीं बचा था। इन परिवारों के मृतकों का मुआवज़ा किसे दिया जाए, यह प्रश्न  बड़ा गम्भीर था। ऐसे परिवारों के तमाम स्वयंभू रिश्तेदार  प्रकट होकर मुआवज़े की दावेदारी पेश  कर रहे थे। बिन्नो के एक चाचा पता नहीं कहां से अवतरित हो गए थे और छाती पीट-पीट कर अपनी भाभी और दोनों भतीजियों की अकाल मृत्यु का शोक मना रहे थे।
मुख्यमन्त्रीजी का हैलीकॉप्टर आसमान में मंडराने लगा था। ग़मगीन माहौल में भी उनकी जय-जयकार करने वालों की कमी नहीं थी। अभी तो मुख्यमन्त्रीजी के आने में कम से कम एक घण्टे का वक्त बाकी था पर बिशनपुर गांव में अभी से प्रेस रिपोर्टरों, फोटोग्राफरों , नेताओं, और याचकों में धक्का-मुक्की शुरू  हो गई थी। जिलाधीश,  एस0 पी0, ए0 डी0 एम0 वगैरा मुख्यमन्त्रीजी के स्वागत हेतु हैलीपैड के लिए प्रस्थान कर चुके थे। बाकी बचे छुटभैये अफ़सर भीड़ को व्यवस्थित  करने में नाकाम हो रहे थे। अब भीड़ बेसब्र हो रही थी मगर इन्तज़ार  करने के अलावा कोई और चारा नहीं था। मुख्यमन्त्रीजी के हैलीकॉप्टर को शैलनगर पहुंचे एक घण्टे से ज़्यादा हो चुका था। एक सयाना बोला -
' मुख्यमन्त्रीजी पहले शायद  नन्दगांव चले गए होंगे। वहां भी तो बादल फटने से ऐसी ही तबाही मची है।'
दो घण्टे बीत जाने के बाद भी जब मुख्यमन्त्रीजी के दर्शन  नहीं हुए तो अफ़सरों और नेताओं के मोबाइल फ़ोन  बजने लगे। सूचना मिली कि मुख्यमन्त्रीजी बिशनपुर गांव का सिर्फ़  हवाई दौरा करेंगे और पैदल चलकर सिर्फ़  कटरा गांव का दौरा करेंगे। कटरा गांव में ज़्यादा तबाही तो नहीं हुई थी पर मुख्यमन्त्रीजी वहां सिर्फ़  एक किलोमीटर पैदल चलकर पहुँच  सकते थे। कुछ देर बाद मुख्यमन्त्रीजी का हैलीकॉप्टर आकाश  में चक्कर लगाता हुआ दिखने लगा। तीन चक्कर लगाने के बाद वो भी उड़न-छू हो गया।

एक विपक्षी नेता ने व्यंग्य कसा - 'मुख्यमन्त्रीजी बिशनपुर गांव कैसे आ सकते थे? मुर्दा जानवरों की बदबू से बीमारी फैलने का जो डर था।'
दूसरे आलोचक ने चुटकी ली -
'भैया ! राजा-महाराजाओं को टूटे-फूटे रास्ते पर चार-पाँच  किलोमीटर पैदल चलकर प्रजा के दुख में शामिल  होने की क्या ज़रूरत है? बिशनपुर गांव में सड़क और मकान बनें न बनें पर हैलीपैड ज़रूर बन जाना चाहिए। फिर तो हर मन्त्री यहां का दौरा कर लेगा।'              
कुछ ही देर में मेला उजड़ गया। जहां भीड़ की रेलम-पेल थी वहां अब मरघट का सन्नाटा छा गया। बिशनपुर गांव के रहने वालों ने थोड़ी राहत की सांस ली। तमाशबीनों  ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर बड़ा एहसान किया था।

बिशनपुर गांव में बादल फटने के हादसे को चार-पाँच  दिन बीत चुके थे। दिल्ली के दो मशहूर  अखबारों के रिपोर्टर्स लम्बे और उबड़ -खाबड़ आल्टरनेटिव रूट से शैलनगर  आए और वहां से बिशनपुर गांव पहुंचे। दोनों ने तबाही का मन्ज़र देखा। रोता-सिसकता बिशनपुर गांव फिर से अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश  में लगा था। अपने कैमरे में इस टूट-फूट को उन्होंने कैद तो किया पर उन्हें कोई खास थ्रिल  नहीं मिला। पहले रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर से कहा -
'यार ! इस कमर तोड़ सफ़र के बाद एक भी फड़कता हुआ स्नैप नहीं ले पाया हूँ । लोगबाग तो रोज़मर्रा की जि़न्दगी बिताते हुए दिख रहे हैं। यहां न तो पोर्ट ब्लेयर में हुई सूनामी वाली ग्रैन्ड स्केल वाली तबाही है और न लेह में बादल फटने से हुई जाइन्ट स्क्रीन  पर दिखाने लायक बरबादी। लेह जाते तो वहां आमिर खान मिल जाता, यहां तो चील-कौए और हम-तुम ही हैं।'
दूसरे रिपोर्टर ने आह भर कर कहा -
'अब न तो रोज़-रोज़ प्रलय आती है और न हर जगह बॉलीवुड के सितारे पहुंचते हैं। इस नॉनग्लैमरस, कस्बई तबाही के फीके से किस्से को तो लोग-बाग दो-चार दिन में भूल जाएंगे। पर हमको तो अपना काम करना है, चाहे वो बोरिंग हो या एक्साइटिंग। चलो ! नन्दगांव और कटरा में हुए डिज़ास्टर को कवर करने की खानापूरी भी कर लेते हैं और कल ही दिल्ली लौट चलते हैं।' 
           
 

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