गुरुवार, 27 अगस्त 2015

परोपकाराय सताम् विभूतय


अल्मोड़ा प्रवास के अपने आखिरी तेईस साल (1988 से 2011 तक) मैंने कैंट एरिया के नीचे स्थित दुगालखोला में बिताए थे. दुगालखोला पर शहरी और ग्रामीण वातावरण दोनों की ही मिलीजुली छाप है. दुगालखोला में अल्मोड़ा कैंपस की मेरी सहयोगी प्रोफ़ेसर सुधा दुर्गापाल से हमारे परिवार जैसे सम्बन्ध रहे हैं. उनकी दोनों बेटियां रूपा और पारु मेरी दोनों बेटियों गीतिका और रागिनी की मित्र हैं और आर्मी स्कूल अल्मोड़ा में हाई स्कूल तक उनकी सहपाठी भी रही हैं. लेकिन यहाँ बात मैं प्रोफ़ेसर सुधा दुर्गापाल के पतिदेव, रूपा और पारु के पापा, डॉक्टर जगदीश दुर्गापाल की कर रहा हूँ. डॉक्टर साहब और मेरी अभिरुचियाँ भिन्न हैं, जीने का अंदाज़ भी अलग-अलग है इसलिए न तो मैं डॉक्टर साहब की मित्र मंडली में कभी रहा और न ही वो कभी मेरी मित्र मंडली में. लेकिन मेरे दिल में उनके लिए हमेशा एक सम्मान की भावना रही है. डॉक्टर जगदीश दुर्गापाल मूलतः नेत्र विशेषज्ञ थे. जिला अस्पताल में शीर्षस्थ पद तक पहुँचने के बाद उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था. दुगालखोला के लिए डॉक्टर दुर्गापाल संकटमोचक की भूमिका निभाते थे. कहीं भी किसी को कोई तकलीफ हो तो उसके परिवार का कोई सदस्य भागकर डॉक्टर साहब को बुलाने पहुँच जाता था. डॉक्टर साहब अपने सरकारी दायित्वों से मुक्ति पाने के बाद अपना स्टेथेस्कोप और मेडिकल किट लेकर तुरंत मरीज़ के पास पहुँच जाते थे और अपना इलाज शुरू कर देते थे. अब चाहे किसी के पेट में दर्द हो, चाहे किसी को जौंडिस हो गया हो, चाहे कोई तपेदिक का मरीज़ हो या किसी को बुखार हो, डॉक्टर साहब के पास हर मर्ज़ का तात्कालिक इलाज होता था और बाद में ज़रुरत पड़ने पर वो मरीज़ को अस्पताल भिजवाने की व्यवस्था भी करवा देते थे. मैंने कभी भी किसी से भी यह नहीं सुना कि डॉक्टर साहब ने अपनी सेवाओं के लिए किसी ग्रामवासी से फीस ली हो.


मेरे पैर में फ्रैक्चर हुआ तो डॉक्टर साहब ने मेरे बिना बुलाये मेरे घर के नौ चक्कर लगाए. मेरी धर्मपत्नी का गाल ब्लैडर रिमूव होना था तो डॉक्टर साहब ने पूरी व्यवस्था की कि ऑपरेशन अल्मोड़ा में ही हो जाये, यह बात और है कि उनका यह ऑपरेशन फिर दिल्ली में हुआ. मेरी बेटी रागिनी को चिकन पॉक्स निकलीं तो उसका इलाज करने के लिए डॉक्टर साहब ने पता नहीं हमारे घर के कितने चक्कर लगाए. पर डॉक्टर साहब ने जो मेरी स्वर्गीया माँ के लिए किया था उसको सोचकर भी मेरी आँखें भर आती हैं. गर्मियों में माँ दिल्ली से हमारे पास रहने आ जाती थीं. वृद्धावस्था और पिताजी के बिछोह ने माँ को अन्दर से बिलकुल तोड़ दिया था. एक बार माँ अल्मोड़ा आईं, उनको हर पंद्रह-पन्द्र दिन के अंतराल के बाद ड्यूरोबोलिन के कुल 5 इंजेक्शंस लगने थे. मैंने डॉक्टर दुर्गापाल से किसी अच्छे कम्पाउण्डर के बारे में पूछा तो डॉक्टर साहब काफी देर तक सोचते रहे फिर बोले –


‘ड्यूरोबोलिन का इंजेक्शन बहुत ऑयली होता है, उसे लगाने के लिए एक्सपर्ट चाहिए. मेरी नज़र में ऐसा कोई कम्पाउण्डर हमारे आसपास नहीं है. अम्माजी के इंजेक्शन मैं लगा दूंगा.’


मैंने कहा – ‘डॉक्टर साहब माँ के ऐसे 5 इंजेक्शन लगने हैं.’


डॉक्टर साहब ने मुझे आश्वस्त किया कि वो ये काम ज़रूर करेंगे बशर्ते कि मैं उन्हें निश्चित तिथि से एक दिन पहले ही उन्हें फ़ोन करके इसके लिए सचेत कर दूँ. डॉक्टर साहब ने मेरी माँ के ये पांचो इंजेक्शन लगाए और हर बार आधे-एक घंटे तक उनकी व्यथा कथा भी सुनी. मैंने माँ को डॉक्टर साहब के कीमती वक़्त की दुहाई दी तो उन्होंने मुझे रोक दिया और बोले –


‘जैसवाल साहब, अम्माजी की व्यथा-कथा को प्यार और धीरज से सुनना उनके इलाज का सबसे ज़रूरी हिस्सा है. इस तरह का इलाज तो आप सब कर सकते हैं’


मैं बिचारा खिसियाने और डॉक्टर साहब को धन्यवाद देने के सिवा और क्या कर सकता था.


2007 के गर्मियों में माँ आखिरी बार हमारे यहाँ आईं. माँ ने कई बार मुझसे डॉक्टर दुर्गापाल को बुलाने की फरमाइश की पर अपनी व्यस्तता के कारण मेरे अनुरोध पर भी डॉक्टर साहब माँ से मिलने नहीं आ पाए. 8 अगस्त, 2007 को सवेरे माँ की तबियत अचानक से बहुत ख़राब हो गयी. डॉक्टर साहब रोजाना सवेरे घूमने जाते थे. मैं उनके लौटने के रास्ते पर खड़ा हो गया और वो मुझे मिल भी गए. माँ का हाल सुनकर डॉक्टर साहब तुरंत मेरे साथ चल पड़े, उन्होंने माँ को देर तक एक्ज़ामिन किया फिर बोले – ‘मैं घर से स्टेथेस्कोप लेकर आता हूँ, बात कुछ गंभीर लग रही है. मिसेज़ जैसवाल, आप लोग नाश्ता कर लीजिये, जैसवाल साहब डायबटिक हैं, इनका नाश्ता करना ज़रूरी है.’


हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया और डॉक्टर साहब ने दुबारा माँ का मुआयना किया फिर हमको बतलाया कि माँ की तो करीब एक घंटे पहले ही मृत्यु हो चुकी है. डॉक्टर साहब को माँ की मृत्यु का पहले ही पता चल चुका था बस वो ये चाहते थे कि मैं दुखद सूचना से पहले नाश्ता कर लूं. माँ को भू-शयन कराने के लिए डॉक्टर साहब ने मेरे साथ मिलकर ड्राइंग रूम का सब सामान बाहर बरामदे में रखवाया फिर माँ को उनके कमरे से वो मेरे साथ उन्हें उठाकर ड्राइंग रूम में लाये. मैंने रोते हुए डॉक्टर साहब से कहा – ‘डॉक्टर साहब, आप माँ के बेटे का फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं. आपको मैं कैसे धन्यवाद दूं?’


डॉक्टर साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा –‘आप की माँ मेरी भी कुछ लगती थीं, उनकी आखरी सेवा करने का आप मुझे धन्यवाद देंगे?’

माँ का डेथ सर्टिफिकेट तैयार करने का काम भी डॉक्टर साहब ने किया और वो उनके अंतिम संस्कार में भी शामिल हुए.

आजतक मैंने अपने जीवन में डॉक्टर दुर्गापाल जैसा सेवाभाव वाला डॉक्टर नहीं देखा. अल्मोड़ा छोड़ने के बाद दुर्गापाल परिवार से मेरी भेंट नहीं हुई है पर मुझे यकीन है कि अभी भी किसी की भी पुकार पर डॉक्टर दुर्गापाल अपना स्टेथेस्कोप लेकर भाग रहे होंगे. और क्या कहूँ और क्या लिखूं बस यही कहूँगा – ‘मानवता की यूँ ही सेवा करते रहिये डॉक्टर! हो सकता है आपको देखकर हम भी किसी की सेवा निस्स्वार्थ भाव से करना सीख जाएँ.’

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