गुरुवार, 17 सितंबर 2015

गुरु और शिष्य

राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त एक आदर्श शिष्य और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके आदर्श गुरु थे. वास्तव में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों में हिंदी साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी को खड़ी बोली में शुद्ध, प्रांजल और सोद्देश्यपूर्ण काव्य-सृजन और गद्य-लेखन का प्रशिक्षण दिया था. मैथिली शरण गुप्त को अपने बचपन में ही झाँसी में आचार्य द्विवेदी से भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था किन्तु तब तक उन्होंने अपना काव्य-सृजन प्रारम्भ नहीं किया था. गुप्तजी ने ब्रज भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और फिर उन्होंने हिंदी की खड़ी बोली में भी कवितायेँ लिखीं परन्तु उनमें ग्राम्यत्व दोष के साथ-साथ व्याकरण की और वर्तनी की अशुद्धियाँ भी होती थीं. एक बार युवा मैथिली शरण गुप्त ने खड़ी बोली में रचित अपनी एक कविता आचार्य द्विवेदी के संपादन में प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ भेजी. कुछ दिनों बाद आचार्य द्विवेदी ने गुप्तजी को पत्र लिखा कि उनकी कविता ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ स्वीकृत कर ली गयी है. गुप्तजी ने सरस्वती के अगले कई अंक देख डाले किन्तु उनमें उन्हें अपनी कविता नहीं मिली. दुखी होकर उन्होंने आचार्य द्विवेदी से अपनी कविता के प्रकाशित न किये जाने का कारण पूछा. द्विवेदीजी ने उत्तर में लिखा कि उनकी कविता ‘सरस्वती’ के अमुक अंक में व्याकरण और भाषा के दोषों को दूर करके प्रकाशित कर दी गयी है. गुप्तजी की अपनी इस संशोधित कविता पर दृष्टि तो पडी थी किन्तु वह स्वयं ही उसे पहचान नहीं पाए थे. इस महान आचार्य ने अपने इस दूरस्थ शिष्य की भाषा को शुद्ध और परिमार्जित किया. आचार्य द्विवेदी ने गुप्तजी को सोद्देश्यपूर्ण कविताओं की रचना के लिए प्रेरित किया. अपने खंड काव्य ‘जयद्रथ वध’ को अपने गुरूजी को समर्पित करते हुए गुप्तजी कहते हैं-

‘श्रीमान पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की सेवा में –

आर्य!
पाई तुम्ही से वस्तु जो, कैसे तुम्हें अर्पण करूँ?
पर क्या परीक्षा-रूप में, पुस्तक न ये आगे धरूँ?
अतएव मेरी धृष्टता यह, ध्यान में मत दीजिये,
कृपया इसे स्वीकार कर कृत-कृत्य मुझको कीजिये.’

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी विभिन्न भाषाओँ के साहित्य में गहरी अभिरुचि रखते थे, उन्हें ज्ञात था कि नवोदित हिंदी की खड़ी बोली के भाषा और साहित्य को अन्य भाषाओँ के साहित्य से बहुत कुछ सीखना है. उन्होंने गुप्तजी को बंगला और उर्दू साहित्य का गहन अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया. गुरु देव रबिन्द्रनाथ टैगोर ने अपने एक लेख में भारतीय साहित्यकारों से यह आग्रह किया था कि वे पौराणिक एवं ऐतिहासिक उपेक्षित नारी पात्रों को अपनी साहित्यिक रचनाओं में मुख्य पात्र बनाये. आचार्य द्विवेदी को गुरु देव टैगोर की यह बात बहुत अच्छे लगी. उन्होंने गुप्तजी को प्रेरित किया कि वह रामायण काल की नितांत उपेक्षित किन्तु महान पात्र, लक्ष्मण की पत्नी, उर्मिला को नायिका बनाकर एक महाकाव्य लिखें. गुप्तजी ने अपने महाकाव्य ‘साकेत’ में उर्मिला को नायिका बनाया. साकेत’ की भूमिका में गुप्तजी ने स्वयं को तुलसीदास और अपने गुरु को महावीर हनुमानजी (जिन्होंने तुलसीदास को ‘रामचरित मानस’ की रचना करने के लिए प्रेरित किया था) के रूप में प्रस्तुत किया है –

‘आचार्य पूज्य द्विवेदीजी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा का मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है. वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार आप लोगों के सामने खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है –

करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद?
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद.’

गुप्तजी ‘साकेत’ के प्रकाशन के बाद एक सुविक्यत कवि की रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे. उन्हें स्वयं अपनी काव्य प्रतिभा पर अहंकार होने लगा था, एक मित्र को लिखे गए पत्र में उन्होंने स्वयं की तुलना गोस्वामी तुलसीदास से कर दी थी. आचार्य द्विवेदी ने बिना कोई संकोच करते हुए गुप्तजी को सावधान किया कि वो स्वयं को गोस्वामी तुलसीदास जैसा महा कवि समझने की भूल न करें. गुप्तजी ने अपनी भूल के लिए अपने आचार्य से तुरंत क्षमा मांगी और फिर आगे से उन्होंने आत्म-प्रशस्ति से स्वयं को दूर रक्खा. हिंदी साहित्य के इतिहास में गुरु और शिष्य की ऐसी महान जोड़ी अन्यत्र नहीं मिलती. इन गुरु और शिष्य दोनों को कृतज्ञ हिंदी प्रेमियों का शतशः नमन.

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