गुरुवार, 12 नवंबर 2015

पिताजी का फिल्म-प्रेम

पिताजी का फिल्म-प्रेम –
मेरे पिताजी को फिल्मों से उतना ही प्रेम था जितना कि कबीर दास को कागज़, कलम और दवात से. मेरी माँ को फिल्म देखने का और फ़िल्मी चर्चा करने का बहुत शौक़ था और मेरे लिए तो फिल्में परमानन्द प्राप्ति का सबसे अचूक नुस्खा थीं.
अपने छात्र-जीवन में पिताजी ने इक्का-दुक्का क्लासिक अंग्रेजी फिल्में ज़रूर देखी थीं पर एक बार सिनेमा हॉल में उनका पर्स किसी ने उड़ा लिया, तबसे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि फिल्में या तो अपनी जेब कटवाने वाले बेवकूफ देखते हैं या फिर उनका शिकार करने वाले जेबकतरे.
हमारे बचपन में हमारे लिए फिल्में देखना किसी त्यौहार से कम नहीं होता था. माँ और हम बच्चों के लाख खुशामद करने पर भी पिताजी हमको फिल्म दिखाने के लिए पसीजते नहीं थे और उस पर से मेरे पढ़ाकू बड़े भाई साहब भी पिताजी के स्वर में अपना स्वर मिलाकर हमारी मांगों के ठुकराए जाने का माहौल तैयार कर देते थे. खुशकिस्मती से हमें साल में दो-तीन फिल्में देखने को मिल जाती थीं, कभी रिज़ल्ट अच्छा आने पर, कभी पिताजी के लाड़ले, हमारे छोटे मामा के अनुरोध पर तो कभी किसी फिल्म की ज़्यादा ही तारीफ़ सुनने पर. बचपन में लखनऊ में बिताये गए तीन सालों में हमको वहां के 17 सिनेमाओं में घर से एक किलोमीटर दूर पर स्थित कैपिटल सिनेमा में इतवार की सुबह महीने में एकाद बार जाने का मौका मिलता था पर फिल्में देखने के लिए नहीं बल्कि वहां पर लगने वाली बोरिंग किन्तु शिक्षाप्रद डाक्यूमेंट्री फिल्म्स देखने के लिए. डाक्यूमेंट्री फिल्म्स के साथ अगर किसी फिल्म का ट्रेलर दिखाई दे जाता था तो हम अपना जीवन धन्य मानते थे.
फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ की हम सबने बहुत तारीफ़ सुनी थी पर हमारे न्यायधीश पिताजी का फैसला था – ‘इस फिल्म के नाम से ही पता चलता है कि यह ठगों पर बनाई गयी है.
‘मदर इंडिया ‘ हमको इसलिए नहीं दिखाई गयी क्योंकि इसकी कहानी कैथरीन मेयो की भारत विरोधी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ पर आधारित रही होगी. मेरे बड़े भाई साहब ने कहानी की हकीक़त जानते हुए भी चुप लगाना ज़रूरी समझा था.
हमारे घर में रेडियो आया तो विविध भारती और रेडियो सीलोन हमारे लिए अमृत वर्षा करने वाले बादल बन गए पर पिताजी के लिए रेडियो का मतलब न्यूज़, आराधना और क्रिकेट कमेन्ट्री सुनना हुआ करता था. बुद्धवार की शाम आठ बजे हम भक्तगण बिनाका गीतमाला सुनने के लिए अपनी-अपनी सांस रोककर बैठ जाते थे और आमतौर पर शाम 9 बजे वाली अंग्रेजी न्यूज़ सुनने वाले हमारे पिताजी हमारे रंग में भंग डालने के लिए रेडियो पर 8 से 9 के बीच वाले हिंदी समाचार सुनने लगते थे.
बचपन बीता, हम बड़े हो गए और खुद अपने पैरों पर खड़े भी हो गए. मैंने हॉस्टल-प्रवास के दौरान अपना पूरा पॉकेटमनी फिल्में देखने में खर्च किया था और अब जबकि अपनी खुद की कमाई आनी शुरू हो गयी तो फिर पुरानी अधूरी हसरतों को पूरा करने से मुझे कौन रोक सकता था. एक आदर्श पुत्र की भांति मैंने अपनी माँ की फ़िल्म दिखाने की फ़रमाइशों को पूरा करना अपना फ़र्ज़ समझा. अब मुझमें इतनी हिम्मत आ गयी थी कि पिताजी को भी मजबूर कर दूं कि वो माँ को ले जाकर फिल्म दिखाएँ. ‘फ़िल्म देखने से बच्चे बिगड़ जायेंगे’ वाली पिताजी की दलील अब बेमानी हो गयी थी क्यूंकि उनकी अंतिम संतान यानी कि मैं भी अब सेटल हो चुका था. लेकिन पिताजी को ऐसी-वैसी फिल्म देखने और माँ को ले जाकर उसे दिखाने के लिए तैयार नहीं किया जा सकता था. मैंने उन्हें ‘मुगले आज़म’ देखने के लिए तैयार किया. फिल्म तो उन्हें पसंद आयी पर शहज़ादे सलीम को उसकी बदतमीजियों के लिए वो मुगले आज़म की तरह खुद भी थप्पड़ लगाना चाहते थे. शहज़ादे सलीम के सन्दर्भ में माँ से कहा गया पिताजी का यह वाक्य मुझे आज भी याद है –
‘अब पता चला. तुम्हारे छोटे साहबज़ादे ने बदतमीज़ी से जवाब देना किस से सीखा है.’
‘गूंज उठी शहनाई’ फिल्म में बिस्मिल्ला खान ने शहनाई बजाई थी, उनका नाम सुनकर पिताजी फिल्म देखने को राज़ी हो गए. हम सिनेमा हॉल पहुंचे तो वहां फिल्म बदल चुकी थी और ‘आ गले लग जा’ लग गयी थी. मैंने पिताजी को फिल्म तब्दील हो जाने की सूचना देना उचित नहीं समझा. फिल्म देखी गयी और पिताजी जब-तब मुझे और माँ को गुस्से से घूरते रहे. फिल्म ख़त्म होने के बाद उन्होंने माँ को अपना फैसला सुनाया –
‘तुम्हारा बेटा धोखेबाज़ है. फिल्म की कहानी बेहूदा थी पर बच्चे और शत्रुघ्न सिन्हा का रोल अच्छा था.’
1985 में बहुत दिनों बाद हमारे घर में फिर से कार आई थी. मेरी धर्मपत्नी ने पिताजी से ट्रीट के रूप में प्रतिभा सिनेमा में फिल्म दिखाने की फरमाइश कर दी तो वो इंकार नहीं कर सके. पिताजी ने मुझसे पूछा – ‘प्रतिभा में कौन सी फिल्म लगी है?’
मैंने जवाब दिया –‘दि वाइफ.’
पिताजी ने हैरानी से फिर पूछा – ‘तुम्हारी माँ को इंग्लिश फिल्म पसंद आयेगी?’
मैंने पिताजी को जवाब दिया – ‘आजकल हिंदी फिल्मों के टाइटल अंग्रेज़ी में भी रक्खे जाते हैं. ये अच्छी फिल्म है, आप सब को पसंद आयेगी.’ 
सिनेमा हॉल में ‘तवाइफ़’ टाइटल और ‘दि वाइफ’ को मुजरा करते देखकर पिताजी आगबबूला हो गए पर फिर फिल्म की कहानी उन्हें पसंद आ गयी और उन्होंने हम लोगों को माफ़ कर दिया.
बिमल रॉय और ऋषिकेश मुकर्जी की फिल्में पिताजी को पसंद आती थीं और कुछ हद तक बी. आर. चोपड़ा की फिल्में भी, पर उनकी प्रसिद्द फ़िल्म ‘क़ानून’ के अदालत वाले सीन उन्हें बेहद नागवार गुज़रे थे पिताजी का कहना था कि अगर उनके कोर्ट में वकील ऐसी बदतमीज़ी और ड्रामेबाज़ी करते तो वो उनके कान पकड़वाकर उन्हें कोर्ट से बाहर निकलवा देते.
फिल्मों को लेकर मेरी धोखेबाज़ी पर पिताजी बहुत नाराज़ होते थे पर फिर पता नहीं क्यूँ हमसे छुप-छुप कर हँसते भी थे और फिर से मुझसे धोखा खाने के लिए तैयार भी हो जाते थे. आज पिताजी को हमसे बिछुड़े एक अर्सा हो गया है पर आज भी, इस उम्र में भी उन्हें कोई प्यारा सा धोखा देने का और गुस्से से उनकी घूरती हुई ऑंखें देखने का मन करता है.

‘आई मिस यू पिताजी.’              

4 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. http://bulletinofblog.blogspot.in/2015/11/blog-post_12.html पर जा कर धन्यवाद दे कर आईये ना :)

      हटाएं
    2. ऊपर दिये लिंक गोवर्धन पूजन की हार्दिक शुभकामनाएं - ब्लॉग बुलेटिन को क्लिक करें पहुँच जायेंगे ब्लाग बुलेटिन पर ।

      हटाएं