सोमवार, 9 नवंबर 2015

उत्तराखंड की लोरी

आज उत्तराखंड की स्थापना को 15 साल हो जायेंगे. समस्त उत्तराखंडवासी, विशेषकर कुमाऊँवासी खुद को छला गया, पिटा गया, लुटा गया, ठगा गया और सौतेला गया (अभी-अभी गढ़ा गया शब्द) अनुभव करते हैं. इन 15 सालों में हमको कितनी ज़िम्मेदार सरकारें मिलीं, जनता के कल्याण हेतु कितने समर्पित और प्रतिबद्ध जन-प्रतिनिधि और अधिकारीगण मिले, हमारी कितनी प्रगति हुई, कितना विकास हुआ, उसका लेखा-जोखा मैंने उत्तराखंड (पहले उत्तराँचल) की स्थापना से पहले ही कर डाला था. उत्तराखंड या उत्तराँचल की स्थापना से किन-किन की जेबें भरनी थीं, किन-किन को ऐश करने थे और किन-किन को पूर्ववत बदहाल ही रहना था और मदिरालयों को आबाद ही रहना था, यह सबको पता था लेकिन जब उसकी स्थापना हेतु आन्दोलन चल रहा था तो सभी आन्दोलनकारी दिवा-स्वप्न देखने में ही मगन थे. पर मेरे जैसे टेढ़ी बुद्धि के आलोचक इन मन के लड्डुओं में यथार्थ का नमक डालने का काम कर रहे थे. एक भविष्यवक्ता बनकर इस कविता की रचना मैंने जनवरी. 1999 में की थी. मार्च, 1999 में मैंने नैनीताल में उत्तराखंड पर आयोजित एक सेमिनार में इसका पाठ भी किया था जिसमें कि प्रोफ़ेसर शेखर पाठक और श्री आर. एस. टोलिया भी उपस्थित थे. अब पाठकगण इतने सालों बाद अपना फैसला सुनाएँ कि मुझे मार दिया जाय या सटीक भविष्यवाणी करने पर इनाम देकर छोड़ दिया जाय.                
उत्तराखण्ड की लोरी
पुत्र का प्रश्न -
‘मां! जब पर्वत प्रान्त बनेगा,  सुख सुविधा मिल जाएंगी?
दुःख-दारिद्र मिटेंगे सारे,  व्यथा दूर हो जाएंगी?
रोटी, कपड़ा, कुटिया क्या,  सब लोगों को मिल पाएंगी?
फिर से वन में कुसुम खिलेंगे,  क्या नदियां मुस्काएंगी?

माँ का उत्तर -
‘अरे भेड़ के पुत्र,  भेड़िये से क्यों आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह,  पर सच से क्यों डरता है?
सीधा रस्ता चलने वाला,  तिल-तिल कर ही मरता है।
कोई नृप हो, तुझ सा तो,  आजीवन पानी भरता है।।

अभी भेड़िया बहुत दूर है,  फिर समीप आ जाएगा।
नहीं एक-दो,  फिर तो वह,  सारा कुनबा खा जाएगा।।
चाहे जिसको रक्षक चुनले,  वह भक्षक बन जाएगा।
तेरे श्रमकण और लहू से,  अपनी प्यास बुझाएगा।।

बेगानी शादी में ख़ुश है,  किन्तु नहीं गुड़ पाएगा।
तेरा तो सौभाग्य पुत्र भी,  तुझे देख मुड़ जाएगा।
प्रान्त बनेगा, नेता, अफ़सर,  का मेला, जुड़ जाएगा,
सरकारी अनुदान समूचा,  भत्तों में उड़ जाएगा ।।

राजनीति की उठापटक से,  हर पर्वत हिल जाएगा।
देव भूमि का सत्य-धर्म सब,  मिट्टी में मिल जाएगा।
वन तो यूंही जला करेंगे,  कुसुम कहां खिल पाएगा?
हम सी लावारिस लाशों का,  कफ़न नहीं सिल पाएगा।।

रात हो गई, मेहनतकश भी अपने घर जाते होंगे।
जल से चुपड़ी, सूखी रोटी, सुख से वो खाते होंगे।
चिन्ता मत कर, मुक्ति कभी तो,  हम जैसे पाते होंगे।

सो जा बेटा, मधुशाला से, बापू भी आते होंगे।।‘

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