शनिवार, 14 मई 2016

निर्णायक महोदय



निर्णायक महोदय –
मुझको निर्णायक बनकर किसी की प्रतिभा या उसकी किस्मत का फ़ैसला करने का मौक़ा आम तौर पर उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के दौरान ही मिला करता था. लेकिन मेरी ज़्यादा बोलने और अनाप-शनाप लिखने की बीमारी ने चंद लोगों में यह गलतफ़हमी पैदा कर दी कि मैं साहित्य, कला और इतिहास विषयक वाद-विवाद, भाषण, कविता आदि प्रतियोगिताओं में निर्णायक की भूमिका बखूबी निभा सकता हूँ. मेरे इन नादान कद्रदानों का क्या हश्र हुआ, इसका ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है ताकि उनके अंजाम से सबक लेकर आने वाली नस्लें मुझे निर्णायक बनाने की हिमाक़त न करें.


एक बार हमारे इतिहास विभाग में राष्ट्रीय आन्दोलन विषयक भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया और उसके लिए मुझे निर्णायक बनाया गया. एक नेता किस्म के प्रतियोगी ने जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड पर बड़ा ओजस्वी भाषण दिया और फिर बड़े विस्तार से बताया कि कैसे सरदार ऊधम सिंह ने 1940 में हत्यारे जनरल डायर को मारकर इस हत्याकांड का बदला लिया. मेरी कु-बुद्धि इस भाषण को हज़म नहीं कर पाई. मुझको पता था कि जलियाँवाला बाग़ में निहत्थों पर गोलियां बरसाने वाले जनरल डायर की 1927 में ही स्वाभाविक मृत्यु हो चुकी थी और सरदार ऊधम सिंह ने जिसे 1940 में मारा था, वह महा अत्याचारी, पंजाब में मार्शल लॉ लगाने वाला, वहां का तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर, माइकल ओडवेयर था. मैंने उस प्रतियोगी को इस गलती के कारण बहुत कम अंक दिए. मेरे इस आकलन का घोर विरोध करने वालों में मेरे कई साथी भी थे क्योंकि उनके विचार से भी ऊधम सिंह ने जनरल डायर को ही मारा था. मजबूरन मुझे मंच पर आकर 5 मिनट तक जनरल डायर तथा माइकल ओडवेयर में अंतर स्पष्ट करना पड़ा किन्तु फिर भी बहुमत ने मुझे क्रूर और अत्याचारी ही माना.


हिंदी विभाग के मित्रों का मुझे हमेशा प्यार मिला किन्तु मैंने अक्सर उनके प्यार का गलत सिला ही दिया. ‘हिंदी दिवस’ पर आयोजित कार्यक्रमों में मेरी भागेदारी ज़रूरी मानी जाती थी और अक्सर वाद-विवाद अथवा भाषण प्रतियोगिताओं में मुझे निर्णायक की कुर्सी पर बिठा दिया जाता था. हिंदी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किए जाने के समर्थन में अधिकांश प्रतियोगी ‘सारे जहाँ से अच्छा’ क़ौमी तराने की यह पंक्ति उदधृत करते रहे –‘हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा.’ बेचारे अल्लामा इकबाल को क्या पता था कि उनके द्वारा ‘हिंदी’ अर्थात - हिन्द के बाशिंदे, हिंदुस्तान के निवासी के अर्थ में प्रयुक्त इस शब्द को ‘हिंदी भाषा’ के सन्दर्भ में लिया जाएगा. मैंने जब अल्लामा इक़बाल के साथ ज़ुल्म करने वाले इन सभी अत्याचारियों को कम अंक दिए तो एक बार फिर असफल प्रतियोगियों और उनके समथकों ने मुझे निंदा-प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर दिया.


एक कविता प्रतियोगिता में भी मुझे निर्णायक बनाया गया था. प्रतियोगी विद्यार्थीगण प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, छायावादी, तुकांत, अतुकांत कविताओं से सबको आनंदित कर रहे थे. एक नवोदित कवि बच्चनजी की मधुशाला की तर्ज़ पर रूमानी रुबाइयाँ गा-गा कर सुना रहे थे किन्तु उनकी हर रुबाई में चौथी पंक्ति तुक के हिसाब से कुछ लड़खड़ा जाती थी. तालियों के हिसाब से वही सबसे सफल कवि थे. मैंने अपना फ़ैसला उस प्रतियोगी के पक्ष में सुनाया जिसने एक विचारोत्तेजक अतुकांत कविता कही थी. जूनियर बच्चन कवि ने बाद में मेरे पास आकर अपने साथ हुए अन्याय का मुझसे कारण पूछा तो मैंने उनकी कविता में भाव पक्ष और कला-पक्ष दोनों के ही पैदल होने की कमी बताई. भाव पक्ष की कमी को तो उन्होंने स्वीकार किया पर अपनी कविता के कला-पक्ष में उन्हें कोई कमी नज़र नहीं आई. मैंने संक्षेप में उनकी कविता के कला-पक्ष के दोष को उजागर करते हुए किसी अज्ञात कवि की कविता की एक पंक्ति कह दी –


‘थी तीन टांग की टेबल, चौथी में बांस अड़ा था.’


मुझको कक्षाओं और गोष्ठियों में रजिस्टर रख कर बोलने वाले विद्वानों से तथा भाषण एवं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में पुर्जियां और पन्ने लेकर पढ़ने वाले प्रतिभागियों से, सख्त चिढ़ है. पर इनमें कुछ पर मेरा बस केवल निर्णायक के रूप में ही चल पाता है. एक भाषण प्रतियोगिता में मुझे जब फिर निर्णायक बनाया गया तो प्रतियोगिता प्रारम्भ होने से ठीक पहले मैंने घोषित कर दिया कि जो भी प्रतियोगी, इस प्रतियोगिता में कुछ लिखा हुआ लाकर बोलेगा, उसे मैं शून्य अंक दूंगा. कुछ प्रतियोगियों और उनके समर्थकों ने इसके विरोध में प्रतियोगिता का ही बहिष्कार कर दिया किन्तु पहली बार कुछ प्रतियोगियों ने मेरी इस हठधर्मिता का ताली बजाकर स्वागत भी किया.

अंतिम किस्सा छोटे बच्चों की प्रतियोगिता का है. हमारे दुगालखोला के दुर्गा मंदिर में होली के दिनों में बच्चों का फैंसी ड्रेस शो का आयोजन था. तीन निर्णायकों में से एक मैं भी था. किसी बच्चे ने महाराणा प्रताप का गेट-अप धारण कर यह कसम खाई कि – ‘जब तक मैं चित्तौड़ को दुबारा जीत नहीं लूँगा, तब तक मैं बिस्तर पर नहीं, ज़मीन पर सोऊंगा.’ एक बच्ची ने लक्ष्मी बाई के वेश में तलवार तानते हुए यह गर्जना की –‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी.’ किन्तु सबसे ज़्यादा तारीफ़ उस बच्चे की हुई जिसने मैले-कुचैले कपड़े पहनकर, अपने बाल बिखरा कर, हाथ में अधभरी बोतल लेकर देवदास का अभिनय करते हुए कहा था –‘कौन कमबख्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है?’. मेरे साथी निर्णायकों ने उस बच्चे को प्रतियोगिता में सर्वाधिक अंक दिए किन्तु मैंने उसको डिसक्वालिफ़ाई कर दिया. मैंने उस बच्चे के माता-पिता की इस बात के लिए भर्त्सना की कि माँ दुर्गा के प्रांगण में वो उसको शराबी देवदास बनाकर लाए थे और फिर मैंने आयोजकों को भी इस घोर अपराध को होने देने के लिए लताड़ा. मेरे इस क्रान्तिकारी निर्णय और भाषण पर लोगों की फिर मिली-जुली प्रतिक्रिया रही. किसी ने मेरा निर्णय सराहा तो किसी ने मुझे बाक़ायदा बेरहम बताया. परन्तु इसके बाद फिर कभी मुझे दुर्गा मंदिर में किसी भी प्रतियोगिता में निर्णायक नहीं बनाया गया.

अल्मोड़ा में निर्णायक की भूमिका निभाने के लिए बरसों तक तरसते हुए मैंने वहां से विदा ली. अवकाश प्राप्ति के बाद मुझे बाहर कहीं भी निर्णायक की भूमिका निभाने का अवसर नहीं मिला है और मेरे अपने घर में मेरे क्रांतिकारी निर्णयों की मेरी श्रीमतीजी इतनी बड़ी प्रशंसक हैं कि मुझे खाना खिलाते समय वो मुझसे यह भी नहीं पूछतीं कि दाल-सब्ज़ी में नमक ठीक पड़ा है या नहीं.

1 टिप्पणी:

  1. :) अब खाट खड़ी करने वाले को ही अपनी खाट पर बैठने के लिये कौन कहेगा वैसे भी । जय हो ।

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