बुधवार, 17 मई 2017

वो कौन थी -



वो कौन थी? -
‘वो कौन थी’ अपने ज़माने की बड़ी कामयाब फ़िल्म थी पर ‘वो कौन थी?’ जुमला मेरे जी का जन्जाल रहा है और इसने मुझे मेरे बचपन से लेकर जवानी के दिनों तक बहुत-बहुत परेशान किया है.
अपने बचपन के तीन साल मैंने इटावा में बिताए थे. हमारे घर के ही पास एक साहब रहते थे. उनकी बेटी का नाम बेबी था. मुझसे एक साल छोटी. बेबी मुझे पहली मुलाक़ात में ही बहुत अच्छी लगी थी और बेबी को भी मैं बहुत अच्छा लगा था पर हमारे घर में लड़के और लड़की के बीच दोस्ती की कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था, भले ही उनके अपने दूध के दांत भी न टूटे हों.
मैं तो संकोचवश न तो बेबी के यहाँ जा सकता था और न ही उसको अपने घर बुला सकता था और अगर प्ले ग्राउंड में भी कभी उस से मिल लूं तो भाई लोगों की या माँ की ‘ही, ही, खी, खी’ या कृत्रिम खांसी की ‘खों-खों’ सारा मज़ा किरकिरा कर देती थी. बेबी इस मामले में बड़ी बोल्ड थी. उसे दुनिया की कोई परवाह नहीं थी, वो धड़ल्ले से मुझसे मिलने मेरे घर आती थी पर उसके जाते ही मेरा जैसा मज़ाक़ उड़ाया जाता था, उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना आज भी बड़ा मुश्किल होगा. इस अनवरत उपहास का अंजाम यही हुआ कि बेबी और मेरी दोस्ती पक्की होने से पहले ही टूट गयी.
ये त्रासदी पूर्ण कथा एंटी रोमियो स्क्वैड जैसे हमारे उस परिवार की है जिसकी कि कम से कम पिछली पांच पीढियां शिक्षित थीं और शहरों में ही रहती आई थीं. इस सन्दर्भ में कस्बई और ग्रामीण माहौल के तो दकियानूसी दृष्टिकोण की भयावहता की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता.
इन्टरमीजियेट तक लड़कों के ही स्कूल-कॉलेज में पढ़ने के कारण लड़कियों से दोस्ती होने की बात तो छोड़िए, उनसे बात करना तक हमको नसीब नहीं होता था पर जब झाँसी के बुन्देलखण्ड कॉलेज में मैंने बी. ए. में प्रवेश लिया तो उसमें लड़कियों की भरमार थी. अपने क्लास के ख़ास लड़कों में तो अपनी गिनती हो ही जाती थी, लड़कियां दोस्ती करने के लिए सिग्नल्स भी देती थीं पर अपना एरियल या एंटीना ऐसे सिग्नल्स जानबूझ कर पकड़ता ही नहीं था.
झाँसी में हमारा बंगला बुन्देलखण्ड कॉलेज के सामने ही था. एक बार तीन लड़कियां क्लास नोट्स लेने के बहाने माँ, पिताजी की मौजूदगी में ही मेरे घर आ धमकीं. मैंने उन्हें नोट्स देकर विदा किया. माँ घर के अन्दर से ही इस भेंट का नज़ारा देख रही थीं. उन्होंने ‘ये कौन-कौन हैं?’ ‘कैसी बेशरम हैं जो सीधे तेरे घर पहुँच गईं?’ जैसे सवाल पूछ-पूछकर मेरा जीना दूभर कर दिया. मैं इतना दुखी हो गया कि उन लड़कियों से पीछा छुड़ाने के लिए मैंने कॉलेज जाते ही उनको जमकर लताड़ लगाई और आइन्दा फिर ऐसी कोई हरक़त न करने की उन्हें वार्निंग भी दे दी. वो लड़कियां न तो फिर मेरे घर आईं और न ही फिर कॉलेज में उन्होंने मुझसे बात की बल्कि बाद में वो मुझे जब भी देखती थीं तो ऐसा मुंह बना लेती थीं जैसे उन्होंने करेले या नीम का एक-एक लीटर जूस पी लिया हो. 
   मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी में जब एम. ए. में एडमिशन लिया तो तब तक लड़कियों से दोस्ती करने के बारे में मेरी विचारधारा काफ़ी बदल चुकी थी पर उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि अब मैं घर की बंदिशों, ‘ही, ही, खी, खी’ और खों-खों’ से दूर, हॉस्टल में रहकर पढ़ रहा था.
लड़कियों से हमारी बात-चीत भी हुई और फिर थोड़ी-बहुत दोस्ती भी हो गयी पर शुरू-शुरू में इसमें बड़ी दिक्कत भी आई. मैंने अपने परम मित्र अविनाश को अपनी दिक्कत बताते हुए उस से उसका निदान पूछा –
‘लड़कियों से बात करने में और अंग्रेज़ी बोलने में, दोनों में ही, हमारे दिल की धडकनें तेज़ क्यूँ हो जाती हैं? ऐसे मौकों पर हमारे कान गर्म और लाल क्यूँ हो जाते हैं?’
इसके जवाब में अविनाश ने कहा –
‘ऐसी सिचुएशंस में मेरी भी ऐसी ही हालत होती है, बल्कि उनमें मैं तो हकलाने भी लगता हूँ.’      
धीरे-धीरे लड़कियों से बात करने में दिल की धडकनें तेज़ होना बंद हो गईं और कान लाल होने या गर्म होने भी बंद हो गए. क्लास के बाद एकाद घंटा तो हमलोग रोज़ मस्ती करते ही थे. गपशप, फ़िल्मी अन्त्याक्षरी, पिकनिक और डच सिस्टम के अंतर्गत फ़िल्म देखने के सामूहिक कार्यक्रम भी अब आम हो गए थे. फिर कुछ लड़कियां हमारी  दोस्त भी बनीं पर यहाँ भी हमारे ऊपर नज़र रखने वाले, भगवान जी ने तैनात कर ही दिए थे. हमारे चाचा जी लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे और हमारी चाची उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी थीं. जब मैं चाची को अकेला या लड़कों के साथ घूमता हुआ दिखाई देता था तो उनकी कार सर्र से मुझे अन-देखा करती हुई निकल जाती थी पर बदकिस्मती से एक बार मैं उन्हें एक लड़की के साथ जाता हुआ दिख गया तो चाची फ़ौरन कार रोक कर मुझसे पूछने लगीं –
‘गोपेश ! तुम लोगों को मैं कहाँ ड्रॉप कर दूं?’
मेरे मना करने पर चाची ने हमको तो ड्रॉप तो कहीं नहीं किया पर इस किस्से को भी उन्होंने ड्रॉप नहीं किया. जैसे ही मेरी उन से अगली मुलाक़ात हुई तो उनके सवाल का रिकॉर्ड चालू हो गया –
‘वो कौन थी?’ ‘क्या चक्कर चल रहा है?’ ‘कबसे है तुम दोनों की दोस्ती? वगैरा, वगैरा.  
एक किस्सा और ! यह किस्सा तब का है जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हो गया था और माँ, पिताजी के साथ ही रहता था. एक बार मैं, माँ और पिताजी किसी की शादी का गिफ्ट खरीदने के लिए हजरतगंज के एक एम्पोरियम में गए. वहां की सेल्स मैनेजर मेरी पूर्व छात्रा निकली. उसने हमारी जमकर खातिर की, माँ, पिताजी से खूब हंस-हंस कर बातें की और माँ से तो मेरी कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ कर दी.
माँ तो उसकी खातिरदारी, उसकी खूबसूरती और उसकी शाइस्तगी की कायल हो गयी थीं. घर पहुँचने से पहले कार में ही माँ के सवालात शुरू हो गए –
‘बब्बा ! ये लड़की तो बड़ी उर्दू-फ़ारसी झाड़ रही थी, मुसलमान है क्या?’
मैंने जवाब दिया – ‘हाँ ये मुसलमान है. पर आप ये सब क्यूँ पूछ रही हैं?’
माँ ने अपनी आँखें गोल-गोल कर के कहा – ‘है तो बड़ी खूबसूरत ! हम सब से बातें भी इतने प्यार और सलीके से कर रही थी. मुझे तो ऐसी ही बहू चाहिए.’
पिताजी ने हँसते हुए माँ से सवाल पूछा –‘घर में तुम लहसुन, प्याज तो आने नहीं देती हो, अब उसके हाथ की क्या बिरयानी खाओगी?’
माँ ने जवाब दिया – ‘बिरयानी न सही, पर उसके हाथ की बनी सेवैयाँ तो खा ही सकती हूँ.’
मैं बेचारा माँ-पिताजी के बीच में फंसा कब तक उन्हें – ‘ऐसा कुछ नहीं है, ऐसा कुछ नहीं है’ कहकर सफ़ाई देता? माँ मेरी शादी की योजना बनाती रहीं और मैं चुपचाप अपना सर धुनता रहा.
खैर मेरी अपनी दर्द भरी दास्तान का अंतिम अध्याय सुखद रहा. बिना किसी चक्कर के, बिना किसी बाधा के, मेरी तो अरेंज्ड मैरिज हो गयी पर व्यक्तिगत स्तर पर मैंने लड़के-लड़की की दोस्ती को हमेशा एक स्वाभाविक घटना मानकर स्वीकार किया है और उसकी हमेशा हिमायत भी की है.
यह बात मेरे क़तई समझ में नहीं आती कि जहाँ भी लड़का अगर लड़की से बात करता हुआ या उसके साथ घूमता दिख जाए तो हमारे चेहरे पर अविश्वास से भरी एक कुटिल मुस्कान क्यूँ आ जाती है.
सवाल यह भी उठता है कि लड़का लड़की क्या सूरज और चन्द्रमा हैं जिनकी कि आपसी दूरी भले ही लाखों मील हो पर अगर उन पर एक दूसरे की छाया भी पड़ जाएगी तो ग्रहण लग जाएगा.
हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में लड़के अपने भाषणों में लड़कियों के लिए हमेशा ‘बहनों’ का संबोधन क्यूँ प्रयुक्त करते हैं? क्या लड़के और लड़कियों, दोनों के लिए, केवल ‘मित्रों’,‘दोस्तों’ या ‘साथियों’ का संबोधन काफ़ी नहीं है?
कुछ सवाल और –
क्या लड़के और लड़की के बीच कोई चक्कर चलना ज़रूरी होता है या फिर उनके बीच भाई और बहन का अटूट सम्बन्ध होना ज़रूरी होता है?
और अगर उनके बीच कोई चक्कर चल भी रहा है तो दूसरों को उसमें इतनी दिलचस्पी या उस पर इतनी आपत्ति क्यूँ होती है?
लड़के-लड़की या स्त्री-पुरुष के बीच दोस्ती या बेतक़ल्लुफ़ी के सम्बन्ध क्यूँ नहीं हो सकते?
अपनी बात कहूं तो मैं तो अपनी अधिकतर महिला सह-कर्मियों को और अपने हम-उम्र दोस्तों की पत्नियों को उनके नाम से पुकारता था और उनको अपना दोस्त ही मानता था. मेरा तजुर्बा तो यही कहता है कि उनको इस पर कोई ऐतराज़ नहीं होता था.
अल्मोड़ा में 31 साल बिताने के बाद मैं वहां की तारीफ़ में यह कह सकता हूँ कि वहां लड़के और लड़की की दोस्ती को काफ़ी सहज रूप से लिया जाता है पर हम सभी शहरों, कस्बों या गाँवों के लिए ऐसी बात नहीं कह सकते.
मैंने खुद या मेरी पत्नी ने अपनी बेटियों को किसी लड़के के साथ देख कर संदेह भरे लहजे में यह सवाल कभी नहीं पूछा – ‘वो कौन था?’
आज माहौल बदलता जा रहा है. लड़के-लड़की की दोस्ती आज कोई हौवा नहीं है. प्रेम-विवाह को भी अब बहुत से लोग सहर्ष स्वीकार करने लगे हैं पर अभी भी इस क्षेत्र में, हमारी मानसिकता में, सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है.  
मेरे समझ में नहीं आता कि हम प्रकृति के प्रवाह को रोकना क्यूँ चाहते हैं और परस्पर एक नैसर्गिक आकर्षण को नकारना क्यूँ चाहते हैं? 
मेरे कुछ और सवाल हैं –
लड़के अगर लड़कियों में दिलचस्पी नहीं लेंगे तो क्या विवेकानंद बनकर आध्यत्मिक चर्चा में लेंगे?
लड़कियां अगर लड़कों में रूचि नहीं लेंगी तो क्या केवल त्याग-तपस्या में और गृह-कार्य में मग्न रहेंगी?
संस्कृति और संस्कारों के ठेकेदारों और ठेकेदारनियों से मेरा करबद्ध निवेदन है –
‘दाल-भात में मूसरचंद की भूमिका निभाना छोड़िए और बच्चे-बच्चियों, किशोर-किशोरियों को, युवक-युवतियों को आपस में मिलने दीजिए, उनके अपने विवेक पर कुछ भरोसा रखिए और उन्हें अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह से तो नहीं, पर कम से कम थोड़ा-बहुत, अपने ढंग से जीने दीजिए.’
मुझे उम्मीद है कि इस पोस्ट को पढ़ने वाले हमेशा अविश्वास और शिकायत भरे स्वर में अपनी बेटी या छोटी बहन को किसी लड़के के साथ देख कर यह नहीं पूछेंगे–
‘वो कौन था?’
या
किसी लड़के को किसी लड़की के साथ देख कर. उसे काट खाने वाली नज़रों से घूरते हुए उस से ये कोई नहीं पूछेगा –
‘वो कौन थी?’

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