शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

पहले आत्महत्या और अब ख़ुदकुशी




पहले आत्महत्या और अब ख़ुदकुशी -

राजीव गाँधी के शासन काल में सरकारी रिकॉर्ड की सुई हर बार नाना जी और मम्मी जी की दास्तान पर अटक जाती थी.  इस से क्षुब्ध होकर मैंने कुछ पंक्तियाँ कही थीं-

मम्मी ने ये किया था,
वो कर गए थे नाना,
कब तक सुना करेंगे,
किस्सा वही पुराना.
पुरखों की आरती में,
मुर्दों की दास्ताँ में,
मसरूफ़ हो रुके हम,
पर बढ़ गया ज़माना.’

आज हम भारत के जगदगुरु होने का दंभ भरते हुए अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेज रहे हैं और स्वदेशी का राग अलापते हुए मल्टी नेशनल कंपनियों को,  विदेशी पूंजीपतियों को भारत के बाज़ार को लूटने की खुली छूट दे रहे हैं. हम वसुधैव कुटुम्बकम का नारा लगाते हुए, देश को एकसूत्र में बाँधने का दावा करते हुए, देश के, और समाज के, उसी कुशलता से टुकड़े कर रहे हैं जैसे कि कोई पारंगत हलवाई थाल में सजाकर बर्फ़ी के टुकड़े करता है

भारत की एकता का,
नाटक सुखान्त होगा.
हर प्रांत, देश होगा,
हर क़स्बा, प्रान्त होगा.

और अंत में – हमसे जलने वाले प्रेमचंद के होरी जैसे किसानों की आत्महत्या की दुहाई देकर हमको अपनी उपलब्धियों का गुणगान करने से रोकना चाहते हैं, हमको उत्सवों का आयोजन करने से रोकना चाहते हैं. पर हम क्या उनके रोके रुकेंगे? कभी नहीं –

ख़ुदकुशी होरी करे,
उत्सव मनाते जाएंगे,
हम रसातल तक प्रगति के,
गीत गाते जाएंगे.

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